शनिवार, 25 जनवरी 2014

क्या सचमुच अयोध्या का मैच ‘फिक्स’ है ?


अतुल सिन्हा

अयोध्या में चौरासी कोसी परिक्रमा को लेकर पिछले एक हफ्ते से जो सियासी ड्रामा चल रहा है उसका फायदा किसे मिलने वाला है? ये सवाल देश के राजनीतिक गलियारों में तैर रहा है। न तो इस वक्त 1992 वाले हालात हैं, न देश का आम मुसलमान या हिंदू, ऐसे किसी भी विवाद या तनाव के लिए तैयार है। महंगाई और भ्रष्टाचार की आग में झुलसते माहौल में अचानक राम मंदिर या अयोध्या को एजेंडे पर लाने के पीछे आखिर क्या मकसद है? आखिर समाजवाद के सबसे बड़े मसीहा माने जाने वाले मुलायम सिंह को संतों की ‘राजनीति’ या संघ की ‘रणनीति’ से इतना लगाव क्यों हो गया है?

उत्तर प्रदेश इतनी राजनीतिक विविधताओं से भरा है कि आप इसके मूल स्वरूप को जल्दी नहीं समझ सकते। धर्म, जाति, माफिया और अपराध के नए-नए तरीकों से भरपूर इस प्रदेश की सत्ता के अपने-अपने गणित हैं। भ्रष्टाचार का यूपी फार्मूला भी बाकी राज्यों से अलग है। इन सबके संतुलन में माहिर मायावती की सरकार बेशक तमाम आरोपों से घिरने के बाद पिछले चुनाव में खारिज कर दी गई लेकिन अयोध्या या राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले तब सर नहीं उठा सके थे। यह मामला ही उत्तर प्रदेश की सियासत से हाशिये पर पहुंच गया था। भगवा ब्रिगेड अपने अस्तित्व की तलाश में भटक रहा था और बीजेपी नये सियासी साथी बनाने के लिए बेताब थी। ऐसे में 2014 में बनने वाले समीकरणों का ताना बाना बनना शुरू हो चुका है।


अयोध्या या नरेंद्र मोदी के सवाल पर देश की अवाम क्या सोचती है, मीडिया का नज़रिया क्या है और तमाम तथाकथित सर्वेक्षण क्या कहते हैं इस बहस में जाने से पहले ये बात समझनी होगी कि आखिर ये बिसात बिछा कौन रहा है। क्या बीजेपी, क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी पार्टी या फिर बीएसपी? या सच पूछें तो ये सारी पार्टियां ? साधु संत के नाम पर राजनीति करने के लिए बदनाम बीजेपी या संघ क्या अकेले इसके लिए ज़िम्मेदार हैं या वाकई इसे हवा देकर बाकी पार्टियां भी अपने फायदे तलाश रही हैं? साफ है कि 2014 का मैदान किसी के लिए भी साफ नहीं है और न ही कोई जनता की नब्ज़ को पकड़ पाया है। आने वाले चुनावी महाभारत में सबकी नज़र दिल्ली की कुर्सी पर है। इसके लिए हर तरह के प्रयोग हो रहे हैं। मुसलमानों के मसीहा कहे जाने वाले मुलायम सिंह के लिए भी अब अयोध्या एक हथियार है, बीजेपी की ताकत बढ़ाने की उनकी ये कोशिश आने वाले चुनाव में 1989 फॉर्मूले को ध्यान में रख कर की जा रही है। तब मुलायम सिंह ने यूपी में बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बनने में कामयाबी पाई थी। उधर केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी थी और बीजेपी ने साथ दिया था। आज एक बार फिर तीसरे मोर्चे की कसरत तेज हो चुकी है और दिल्ली की कुर्सी के लिए बीजेपी का साथ ज़रूरी लग रहा है। फिलहाल सब एक सपना सा है लेकिन इसे सच करने के लिए बिसात बिछ गई है। अयोध्या, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया उसी बिसात के मोहरे हैं।

दिल्ली की जंग के लिए सबसे बड़ा रणक्षेत्र उत्तर प्रदेश है और सामान्य तौर पर ये जुमला प्रचलित भी है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। मुलायम सिंह की आखिरी ख्वाहिश दिल्ली की कुर्सी है और इसके लिए मुसलमानों की सियासत भी है और बीजेपी की मज़बूती भी। दूसरी तरफ चाहे रॉबर्ट वाड्रा मामला हो या फूड सिक्योरिटी बिल, मायावती और सोनिया गांधी की नज़दीकियां साफ तौर पर नज़र आ चुकी हैं। आम जनता बेशक बेतहाशा बढ़ती महंगाई से परेशान हो, गिरते रुपए को लेकर भले ही राजनीति हो रही हो और चिदंबरम इसे बड़ी बात न मानते हों, हर किसी को भरपेट खाना देने के नाम पर बनने वाले खाद्य सुरक्षा कानून पर भले ही खींचतान मची हो लेकिन इन तमाम मुद्दों को दरकिनार कर मोदी और अयोध्या बीजेपी के लिए संजीवनी के तौर पर नज़र आ रहे हैं और एक बार फिर हिन्दुत्व के एजेंडे को जबरन ज़िंदा करने के लिए राम की नगरी अयोध्या को छावनी में बदल दिया गया है। तो क्या ऐसे में दिग्विजय सिंह के उस ट्वीट को सही मान लिया जाए जिसमें वो कहते हैं कि ‘अयोध्या का मैच फिक्स है’?

(लेखक ज़ी मध्य प्रदेश/छत्‍तीसगढ़, राजस्थान के आउटपुट एडिटर हैं)


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