शनिवार, 25 जनवरी 2014

शर्म उनको मगर नहीं आती...


शर्म उनको मगर नहीं आती...अतुल सिन्हा

सामाजिक मूल्यों और नैतिकता की वकालत करने वाले, नेताओं और नौकरशाहों को कठघरे में खड़ा करके ‘तहलका’ मचाने वाले किस हद तक मीडिया की ‘डर्टी पिक्चर’ पेश कर रहे हैं, तेजपाल साहब उसके एक नमूने हैं। उनकी बुद्धिजीवी दाढ़ी, तीखी आंखों और तल्ख तेवर के पीछे कौन सा शैतान है, वो खुद बता रहे हैं। 6 महीने तक संपादकी छोड़कर पाप का प्रायश्चित करने का दावा करने वाला क्या देश के कानून से ऊपर हो गया? क्या तेजपाल की इस स्वीकारोक्ति को उनकी अंतर्रात्मा की आवाज़ मानकर माफ कर देना चाहिए?

दरअसल आज आम आदमी की नज़र में मीडिया जिस तरह अपना भरोसा खोता जा रहा है और जिस तरह तमाम विकृतियों का शिकार हो चुका है, ऐसे में क्या इसे महज एक सामान्य घटना मान लिया जाना चाहिए? बेशक इस बात पर बहस ज़रूरी है कि आखिर मीडिया को ग्लैमर और रसूख का पर्याय मानने वाले इसे अपनी निजी अय्याशी का ज़रिया क्यों बना लेते हैं। ऐसा नहीं है कि मीडिया या ग्लैमर की दुनिया में तेजपाल कोई अकेले हैं जो अचानक यौन शोषण के आरोपों के कटघरे में खड़े हो गए हों। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते दबदबे और प्रिंट मीडिया पर भी इसके प्रभाव के बीच इस तरह की प्रवृत्तियां भी तेजी से बढ़ी हैं।
बरसों से बॉलीवुड या मॉडलिंग की दुनिया को इस मामले में बदनाम किया जाता रहा है।

ग्लैमर की दुनिया में करियर बनाने और जल्दी से जल्दी हर मुकाम पा लेने के ‘शॉर्टकट’ तरीके भी अब कोई खास बात नहीं रहे। निर्देशकों और निर्माताओं के ऐसे तमाम किस्से भरे पडेर हैं जिसमें लड़कियों को फिल्मों में काम देने और हीरोइन बनाने के एवज़ में उनके साथ क्या क्या नहीं किया जाता रहा और इसकी हकीकत खुद बॉलीवुड की फिल्मों में कई बार सामने आ चुकी है। सिल्क स्मिता के किरदार में विद्या बालन ने डर्टी पिक्चर में इसका बेहतरीन नमूना पेश किया है।

जाहिर सी बात है कि मीडिया से जुड़े लोग भी खुद को अब ग्लैमर वर्ल्ड का ही एक अहम हिस्सा मानते हैं। उन्हें लगता है कि नेताओं, अभिनेताओं और हर क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए प्रमोशन का सबसे अहम ज़रिया मीडिया ही है। फिल्मों के प्रमोशन के नाम पर बॉलीवुड और मीडिया के लगातार करीब होते रिश्ते और इसके पीछे के अर्थशास्त्र ने वैसे भी चंद लोगों की दुकान धड़ल्ले से चला रखी है। और तो और ईमानदार और खोजी पत्रकारिता करने का दावा करने वालों की दुकानें भी पिछले कई बरसों से चल रही हैं और उसके पीछे के सच भी बीच बीच में सामने आते रहे हैं।शर्म उनको मगर नहीं आती...

तो क्या तरूण तेजपाल ने इस ‘बुढ़ापे’ में जो हरकत की उसे इन्हीं प्रवृत्तियों का आईना नहीं माना जाए? जो लड़की तेजपाल की शिकार बनी, क्या उसे ऐसी तमाम लड़कियों की प्रतिनिधि के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए जो मीडिया की चकाचौंध और बड़े नामों के तिलस्म में उलझ कर अपना काफी कुछ गंवा देती हैं? दरअसल आज हम जिस मीडिया या वर्क कल्चर की बात करते हैं वहां खुलेपन की परिभाषा शायद यही है। महिलाओं को बराबरी का हक और उम्र की सारी सीमाओं को तोड़कर एक दोस्त की तरह रहने और हर तरह की बात या हरकत करने को ही आज खुलापन कहते हैं। मीडिया में ये कल्चर तेजी से बढ़ा है। महिला सहकर्मियों की तारीफ़ में कसीदे पढ़ना, उसकी लच्छेदार बातों से घंटों मनोरंजन करना और अपने तमाम घरेलू फ्रस्टेशन को निकालने का उसे एक जरिया समझना, अब यह एक आम बात है। इसे दोस्ती और खुलापन का नाम दिया जाता है और उन सहकर्मियों को भी ये अहसास दिलाया जाता है कि यही उनके आगे बढ़ने का रास्ता है।

दरअसल जब से मीडिया और मार्केटिंग का चोली दामन का साथ हो गया, पार्टी और पब कल्चर ने इस पेशे को अपने आगोश में लेना शुरू किया और ग्लैमर की चमक दमक ने मूल पत्रकारिता को हाशिये पर धकेल दिया तब से मीडिया का पूरा चेहरा बदल गया। बावजूद इसके इन्हीं सीमाओं में रहते हुए अब भी पत्रकारिता को बरकरार रखने की कोशिशें लगातार जारी हैं। आज भी मीडिया की विश्वसनीयता के लिए लड़ने वाले और पत्रकारिता के मूल्यों को बचाकर चलने वाले ज्यादातर पत्रकार अपनी जंग लड़ रहे हैं लेकिन उनके लिए हर पल अपने अस्तित्व का संकट बना रहता है।

तेजपाल की हरकतों ने ये बहस एक बार फिर तेज़ कर दी है कि क्या मीडिया को ऐसे लोगों की गिरफ्त से निकालना ज़रूरी नहीं है। क्या ऐसे संपादक को पूरी तरह बिरादरी से बाहर कर देने की ज़रूरत नहीं है जो इस संस्था को बदनाम कर रहे हैं? क्या मीडिया को अपनी विश्वसनीयता फिर से बनाने के लिए खुद में झांकने और आत्मालोचना करने की ज़रूरत नहीं है?

(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स में एक्जिीक्‍यूटीव प्रोड्यूसर हैं।)


First Published: Thursday, November 21, 2013, 17:11

आखिर दूसरा ‘सचिन’ क्यों नहीं हो सकता?



आखिर दूसरा ‘सचिन’ क्यों नहीं हो सकता?


आखिर दूसरा ‘सचिन’ क्यों नहीं हो सकता?अतुल सिन्हा

पूरे देश के लिए हो न हो लेकिन तमाम टीवी चैनलों और उससे जुड़े क्रिकेटप्रेमियों के लिए सचिन का भावुक होना, उनकी आंखें नम होना और अपने आखिरी मैच में जीत के तोहफे के साथ सभी से गले मिलना एक ‘बड़ी खबर’ ज़रूर है। और उससे भी बड़ी खबर इस महानायक का वो भावुक और दिल को छू लेने वाला संबोधन। पूरा वानखेडे स्टेडियम और टीवी से चिपके देश के साथ पूरी दुनिया ने ये अद्भुत लम्हा देखा और सचिन के एक-एक शब्द और वाक्य उनके दिल में उतरते चले गए।

अपने 24 साल के सफ़र के साथ बचपन से लेकर अबतक अपनी ज़िंदगी के उन तमाम पलों को सचिन ने जिस तरह याद किया, अपने मां-पिता के साथ-साथ पत्नी, बच्चों, भाई और परिवार के हरेक सदस्य और उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाने वाली हर शख्सियत का उन्होंने तहे दिल से जिस तरह शुक्रिया अदा किया, वो उन्हें समझने के लिए काफी है।

और इन सबके बाद जो सबसे अहम सरकारी तोहफ़ा उन्हें मिला उससे ये तय हो गया कि वाकई सचिन ही असली ‘भारत रत्न’ हैं। इस विवाद से भी परदा उठ गया कि खेल कोटे से हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद इसके पहले हकदार होंगे या जेंटलमैन गेम के मास्टर ब्लास्टर। जाहिर है जब पूरा देश क्रिकेट के इस महानायक को भावुक विदाई दे रहा हो, कुछ साल पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जिस ब्रांड को राज्यसभा में पहुंचाया हो और चुनावी वक्त की नज़ाकत को देखते हुए अपने देश के युवा वोटरों के लिए जो एक नायाब तोहफा हो सकता हो, उसे ‘भारत रत्न’ देने का ये मौका भला कैसे चूका जा सकता था।

सुनील गावस्कर से लेकर राहुल द्रविड़ तक क्रिकेट के बहुत से दिग्गज देश को और क्रिकेट को बहुत कुछ देकर चले गए लेकिन सचिन जैसी शानदार विदाई किसी को नहीं मिली। आखिर ऐसा क्या है सचिन में जिससे वो दुनियाभर में क्रिकेट के महानायक बन गए? आखिर कैसे सचिन के सामने सर डॉन ब्रेडमैन, गैरी सोबर्स या गावस्कर की चमक फीकी पड़ गई? आखिर 200 टेस्ट मैच खेलने या सबसे ज्यादा शतक या रन बनाने का रिकॉर्ड सचिन के नाम ही क्यों और कैसे जुड़ गया ? आखिर दूसरा ‘सचिन’ क्यों नहीं हो सकता?

आज आप किसी से बात कर लीजिए, हर कोई सचिन का मुरीद मिलेगा। बड़ी-बड़ी शख्सियत से लेकर आम आदमी तक। बाज़ारवाद के इस दौर में सचिन से बड़ा आज कोई ब्रांड नहीं। धोनी का एक दौर था लेकिन तमाम विवादों में रहने की वजह से वो खत्म हो गया। सौरव गांगुली जैसे बेहतरीन क्रिकेटर का क्या हश्र हुआ सबको पता है। क्रिकेट के ग्लैमर, कॉरपोरेट वर्ल्ड की चमक-दमक और इसके भीतर की राजनीति ने अच्छे-अच्छे खिलाड़ियों को तबाह कर दिया। क्रिकेटर्स आते-जाते रहे लेकिन 24 सालों तक सिर्फ और सिर्फ सचिन जमे रहे। आखिर सचिन ने कैसे किया ये कमाल ? आखिर उनके भीतर वो कौन सी खासियत रही है जिसकी वजह से क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से लेकर तमाम खेमों में बंटे क्रिकेट के तथाकथित सियासी कर्णधारों को वे साधते रहे ?

भले ही सचिन ने बीच-बीच में घटिया प्रदर्शन भी किया हो लेकिन बड़े-बड़े खिलाड़ी उनकी तारीफ में कसीदे पढ़ते मिलते हैं। और तो और उन्हें टीम से अलग कर देने का साहस कभी किसी ने नहीं जुटाया। क्या सचिन को इस मुकाम तक सचमुच उनके गुरु अचरेकर साहब ने पहुंचाया, या फिर उनके पिता या परिवारवालों ने या फिर इस जेंटलमैन गेम में लगातार बने रहने के लिए उनकी अपनी रणनीति ने। ये रणनीति आखिर थी क्या– बेशक, तमाम विवादों से उनका दूर रहना, किसी भी मैच या खिलाड़ी या विवाद के बारे में कोई साफ राय न देना, किसी खिलाड़ी को न तो ज्यादा आगे बढ़ाना और न ही उसके बारे में कोई बयान देना और सबसे अहम तमाम अधिकारियों से बेहद करीबी और आदर से भरे रिश्ते रखना।

जाहिर सी बात है अगर आप बेहतरीन खेल के साथ-साथ इन फनों में माहिर होते तो आप भी सचिन बन सकते थे। 24 साल और 200 मैच तो शायद अब सपना है क्योंकि अब क्रिकेट वो नहीं रहा जो पहले था। अब न तो क्रिकेट में वो तकनीक है, न टेस्ट मैचों में रोमांच और न ही खेल को लेकर वो समर्पण। इस फटाफट ज़माने में जल्दी-जल्दी क्रिकेट खेलिए, जल्दी-जल्दी पैसे कमाइए और जल्दी से कहीं गुम हो जाइए। इसलिए बदलते हुए इस दौर में अब न तो वो क्रिकेट होगा और न ही सचिन रमेश तेंदुलकर।

(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स में एक्सक्यूटिव प्रोड्यूसर हैं।)



क्या सचमुच अयोध्या का मैच ‘फिक्स’ है ?


अतुल सिन्हा

अयोध्या में चौरासी कोसी परिक्रमा को लेकर पिछले एक हफ्ते से जो सियासी ड्रामा चल रहा है उसका फायदा किसे मिलने वाला है? ये सवाल देश के राजनीतिक गलियारों में तैर रहा है। न तो इस वक्त 1992 वाले हालात हैं, न देश का आम मुसलमान या हिंदू, ऐसे किसी भी विवाद या तनाव के लिए तैयार है। महंगाई और भ्रष्टाचार की आग में झुलसते माहौल में अचानक राम मंदिर या अयोध्या को एजेंडे पर लाने के पीछे आखिर क्या मकसद है? आखिर समाजवाद के सबसे बड़े मसीहा माने जाने वाले मुलायम सिंह को संतों की ‘राजनीति’ या संघ की ‘रणनीति’ से इतना लगाव क्यों हो गया है?

उत्तर प्रदेश इतनी राजनीतिक विविधताओं से भरा है कि आप इसके मूल स्वरूप को जल्दी नहीं समझ सकते। धर्म, जाति, माफिया और अपराध के नए-नए तरीकों से भरपूर इस प्रदेश की सत्ता के अपने-अपने गणित हैं। भ्रष्टाचार का यूपी फार्मूला भी बाकी राज्यों से अलग है। इन सबके संतुलन में माहिर मायावती की सरकार बेशक तमाम आरोपों से घिरने के बाद पिछले चुनाव में खारिज कर दी गई लेकिन अयोध्या या राम मंदिर के नाम पर राजनीति करने वाले तब सर नहीं उठा सके थे। यह मामला ही उत्तर प्रदेश की सियासत से हाशिये पर पहुंच गया था। भगवा ब्रिगेड अपने अस्तित्व की तलाश में भटक रहा था और बीजेपी नये सियासी साथी बनाने के लिए बेताब थी। ऐसे में 2014 में बनने वाले समीकरणों का ताना बाना बनना शुरू हो चुका है।


अयोध्या या नरेंद्र मोदी के सवाल पर देश की अवाम क्या सोचती है, मीडिया का नज़रिया क्या है और तमाम तथाकथित सर्वेक्षण क्या कहते हैं इस बहस में जाने से पहले ये बात समझनी होगी कि आखिर ये बिसात बिछा कौन रहा है। क्या बीजेपी, क्या कांग्रेस, क्या समाजवादी पार्टी या फिर बीएसपी? या सच पूछें तो ये सारी पार्टियां ? साधु संत के नाम पर राजनीति करने के लिए बदनाम बीजेपी या संघ क्या अकेले इसके लिए ज़िम्मेदार हैं या वाकई इसे हवा देकर बाकी पार्टियां भी अपने फायदे तलाश रही हैं? साफ है कि 2014 का मैदान किसी के लिए भी साफ नहीं है और न ही कोई जनता की नब्ज़ को पकड़ पाया है। आने वाले चुनावी महाभारत में सबकी नज़र दिल्ली की कुर्सी पर है। इसके लिए हर तरह के प्रयोग हो रहे हैं। मुसलमानों के मसीहा कहे जाने वाले मुलायम सिंह के लिए भी अब अयोध्या एक हथियार है, बीजेपी की ताकत बढ़ाने की उनकी ये कोशिश आने वाले चुनाव में 1989 फॉर्मूले को ध्यान में रख कर की जा रही है। तब मुलायम सिंह ने यूपी में बीजेपी की मदद से मुख्यमंत्री बनने में कामयाबी पाई थी। उधर केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी थी और बीजेपी ने साथ दिया था। आज एक बार फिर तीसरे मोर्चे की कसरत तेज हो चुकी है और दिल्ली की कुर्सी के लिए बीजेपी का साथ ज़रूरी लग रहा है। फिलहाल सब एक सपना सा है लेकिन इसे सच करने के लिए बिसात बिछ गई है। अयोध्या, अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया उसी बिसात के मोहरे हैं।

दिल्ली की जंग के लिए सबसे बड़ा रणक्षेत्र उत्तर प्रदेश है और सामान्य तौर पर ये जुमला प्रचलित भी है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। मुलायम सिंह की आखिरी ख्वाहिश दिल्ली की कुर्सी है और इसके लिए मुसलमानों की सियासत भी है और बीजेपी की मज़बूती भी। दूसरी तरफ चाहे रॉबर्ट वाड्रा मामला हो या फूड सिक्योरिटी बिल, मायावती और सोनिया गांधी की नज़दीकियां साफ तौर पर नज़र आ चुकी हैं। आम जनता बेशक बेतहाशा बढ़ती महंगाई से परेशान हो, गिरते रुपए को लेकर भले ही राजनीति हो रही हो और चिदंबरम इसे बड़ी बात न मानते हों, हर किसी को भरपेट खाना देने के नाम पर बनने वाले खाद्य सुरक्षा कानून पर भले ही खींचतान मची हो लेकिन इन तमाम मुद्दों को दरकिनार कर मोदी और अयोध्या बीजेपी के लिए संजीवनी के तौर पर नज़र आ रहे हैं और एक बार फिर हिन्दुत्व के एजेंडे को जबरन ज़िंदा करने के लिए राम की नगरी अयोध्या को छावनी में बदल दिया गया है। तो क्या ऐसे में दिग्विजय सिंह के उस ट्वीट को सही मान लिया जाए जिसमें वो कहते हैं कि ‘अयोध्या का मैच फिक्स है’?

(लेखक ज़ी मध्य प्रदेश/छत्‍तीसगढ़, राजस्थान के आउटपुट एडिटर हैं)